लखनऊ,,
साहित्यकार कैलाश मडबैया किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं। न इनका गद्य किसी परिचय का मुहताज है, न काव्य। रचनाकारों की तो लेखनी ही उनकी पहचान होती है। आज इनकी जिस कृति का विमोचन हो रहा है, ´कितने पानी में हैं आप`…का, वह इनकी उन्नीसवीं कृति है। बुंदेली और खडी बोली हिंदी, दोनों में कुल मिलाकर भाई कैलाजी बहुत कुछ लिख चुके हैं। मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि यदि इन्होंने बुंदेली भाषण को छोड दिया होता और सिर्फ और सिर्फ हिंदी में साहित्य की सेवा की होती, तो साहित्य के आकाश में इनकी चमक कुछ अलग होती। मगर, बुंदेलखंडियों की दिक्कत क्या है…वेसे यह बात सब पर लागू होती है, पर बुंदेलखंडियों पर ज्यादा…कि हम ऐसे पेड होते हैं कि अपनी जमीन से उखड तो जाते हैं…जहां जाते हैं, वहीं रम जाते हैं…जम जाते हैं…पर हमारी जडें वहीं बनी रहती हैं, जहां के हम होते हैं। इसे यदि बाबू वृंदावन लाल वर्मा के शब्दों में कहें….तो अपनी आन, अपनी कान …अपनो पानी, अपनी बानी….ये चार चीजें बुंदेलखंडियों को बहुत प्यारी होती हैं। यह ´बानी` के प्रति मडबैयाजी का अनुराग ही है कि इन्होंने अपने रचना-कर्म में हिंदी के मुकाबले बुंदेली को ज्यादा नहीं, बल्कि बहुत ज्यादा तवज्जो दी है। हां, यहां यह जरूर याद रखा जाना चाहिए कि साहित्य की भाई सीमाएं नहीं होतीं। क्या मराठी के साहित्यकार शिवाजी सावंत से हम अपरिचित हैं | क्या अंतोन चैखब, लियो टॉलस्टाय से हम अपरिचित हैं | क्या हम विलियम कोस्पियर को नहीं जानते\ ऐसे दर्जनों नाम गिनाए जा सकते हैं, जिनकी भावनाए हम नहीं जानते, लेकिन साहित्यकारों को हम जानते हैं, उनके रचनाकर्म से हम परिचित हैं, जैसे कि वे हमारे अपने ही हों।….तो कैलाश मडबैयाजी से यही कहा जा सकता है कि भैया! लिखते रहो……लिखते रहो और बताओ कि आपकी बीसवीं कृति कब आने वाली है….\ कहना यह भी है कि ´कितने पानी में हैं आप` कविता संग्रह मडबैयाजी की बहुत सुंदर कृति है। पढोगे, तो पाओगे कि कृति सचमुच अद्भुत है, प्रारंभ से अंत तक। कवि ने मनु”य की लाचारगी-बेचारगी को ‘ाब्द दिए हैं, जैसे…..पहली कविता में ही कहा गया है…..मन दौड रहा है, चारों ओर…जिºवा लपलपाती है, होते ही भोर….कोई काम नहीं होता…राम या आराम भी नहीं होता…..इस पूरी कविता का सार यह है कि मनु”य बस भाग रहा है, दिन-रात दौड रहा है, अपने लोभ के लिए प्रकृति का सत्यानाश करने पर उतारू है, लेकिन उसको मिल कुछ नहीं रहा है। काश! समय निकालकर ये कविता वे लोग भी पढते, कंक्रीट के जंगल खडे करते जाना ही जिनके लिए विकास है। कवि के हृदय में इस तथाकथित विकास से उत्पन्न पीडा यहीं खत्म नहीं होती….यह पीडा एक और कविता में बहुत अंदर से व्यक्त हुई है….हृदय की गहराइयों से….लिखा है-कहां गए बऊआ और बब्बा के पीतल के हडा, गुंड और नादें……कांसे के थाल, सोने के गजरा और गाने…बाई को पहनाए दाऊ ने चांदी के लच्छा…इस्तेमाल करीं पीतल की थालीं, लोहे की बाल्टीं…खाया पीया अच्छा……..इसके बाद सीधा वर्तमान युग पर कटाक्ष किया गया है और यह कटाक्ष नहीं, हकीकत है। लिखा है-और हमने…चीनी की रंग-बिरंगी प्लेटें…बेंटिक्स के गहने, प्लास्टिक की बािल्टयां……सचमुच कितना विकास किया है, हमने।…इस कविता में बुंदेली ‘ाब्दों को भी तहेदिल से सम्मान दिया गया है और यही कैला’ा मडबैया की पहचान है। कवि को अपने गांव की भी याद आती है। मैंने कहा था न कि बुंदेलखंडी अपनी माटी को नहीं भूल सकता…..। लिखा है-बहुत याद आती है, अपने गांव की माटी की…..और इसी बहाने कवि अपने बचपन में जा पहुंचते हैं, सोचते हैं कि उनका गांव कैसा था। कविता में यह चिंता भी बार-बार उभरती है कि पता नहीं, अब उनका गांव कैसा होगा। लिखा है-अब तो चारों ओर सडकें बन गई होंगी…आवागमन के साधन बढ गए होंगे…बांणाघाट की बाढ अब अंधेर नहीं मचाती होगी…ऊंचा-सा पुल बन गया होगा, उस पर। इसी कविता में राजनीति ने देश का जो बंटाढार किया है, उसका चित्र भी उकेरा गया है। लिखा है-गांव बंट गया है, बसपाई, सपाई, भाजपाई उर कांग्रेसियों में…धर्म के नाम पर धंधे होने लगे हैं, अब गांव बासियों में…। हमने पुराना क्या-क्या खोया, इसका वर्णन भी ´कितने पानी में हैं आप` में है। लिखा है-अब नहीं बनाते कुम्हार नक्का’ाी वाले घडे….इस कविता में उस जमाने की पूरी झलक है, जिसको आधुनिक पीढी पुराना जमाना कहती है।…तो एक कविता में खाए-पीए, अघाए हुए लोगों और कुपोि”ातों की परस्पर तुलना भी की गई है। कहा गया है-गांव के घूरों के पास, रेंगते हुए बच्चे बडे पेट वाले…बिस्तयों की बडी-बडी दुकानों में, गदि्दयों से टिके सेठ बडे पेट वाले…दोनों ही दे’ा के भाल पर कलंक हैं…एक कुपो”ाण के कारण, दूसरे ‘ाो”ाण से बढी हुई चरबी के कारण…। यह तुलना रोचक है और भारत की वर्तमान व्यवस्था की पोल खोलने वाली भी। इधर, शबदो की महिमा से तो हम परिचित हैं ही। कवि ने भी इसका वर्णन किया है – शब्द आवरण का भाव, शब्द ज्ञान का रूप, शब्द आचरण हृदय का, शब्द ब्रह्म स्वरूप है। और… शब्द कि जिनसे रामायण, गीता, कुरान सजती हैं। शब्द कि जिनसे जिनवाणी की अमृत ध्वनि रची है। शबदो में ही पावन पौराणिक परपंरा बची है…। क्या कवि के इस विचार से कोई असहमत हो सकता है\ नहीं, ‘ाब्द बहुत महिमावान् हैं, उनकी ताकत अपरंपार है। मडबैयाजी की कोई रचना हो और उसमें सावन का जिक्र न हो, भला ऐसा कैसे हो सकता है। लिहाजा, ´कितने पानी में हैं आप` में भी सावन का सुहाना मौसम आया है। लिखा है-यह बादल, यह पवन झकोरे…जगह-जगह जल भरे कटोरे…हरे खेत, मैदान, मेंड, गैले, गलियारे, आंगन, दौरे…लेकर आना खुि’ायां पाहुन का, मन को बहुत भला लगता है, मौसम सावन का। मडबैयाजी कभी विज्ञान पढाया करते थे, तो उनकी कविता में इसकी झलक भी मिल ही जाती है। एक कविता में आया है और यह मुझ जैसे अनी’वरवादियों -नािस्तकों के लिए ‘ाायद एक सीख देने की कोशिश ही है। मगर, दूसरों की दूसरे जानें, मैं नहीं मानूंगा कि इस्वर का कहीं कोई अस्तित्व है भी। खैर, लिखा है-चलो हम मान लेते हैं कि इश्वर नहीं है…यह मानने में भी कोई हर्ज़ नहीं कि प्रकृति में सभी कुछ स्वत: घटित होता है…अब कवि के वे सवाल सुनिए, जो उन्होंने नास्तिको से पूछे हैं…पर यह कौन तय करता है कि देह एक हो, चेहरे अलग-अलग…हाथ एक हो, पर रेखाएं अलग-अलग…लेखनी एक हो, पर लिखावट अलग-अलग…। भाई साहब! आपके इन सवालों में दम तो है। विचार करूंगा, इन पर। कविता संग्रह में पर्यावरण की चिंता भी समाहित है। लिखा है-नदी पर बन गया है पुल…तलहटी में बनाया बांध…घिरता चिमनियों से बिष…कि पॉलीथिन से बढती सडांध…। सचमुच पर्यावरण का संकट बहुत गंभीर हो गया है। इसके कारण मौसम के चक्र में बदलाव आ रहा है और चूंकि पर्यावरण को बचाने के नाम पर भा”ाणबाजी ही ज्यादा होती है, योजनाएं कागजों पर बनती हैं, पर वे जमीन पर नहीं उतरतीं, इसलिए आने वाले समय में मानवता के सामने संकट बढना ही है। तब कोई संवेदन’ाील व्यक्ति, रचनाकार भला पर्यावरण की अनेदखी कैसे कर सकता है\ दूसरा संक्रमण समाज के सामूहिक मानसिक प्रदू”ाण का है। क्या कोई मानसिक रूप से स्वस्थ्य समाज बेटा और बेटी में फर्क कर सकता है\ क्या कोई समाज इतना पाखंडी हो सकता है कि एक तरफ तो कन्या को देवी का स्वरूप मानकर उसकी पूजा करने का दावा करे, तो दूसरी तरफ कन्या की भ्रूण में ही हत्या करा दे। जब हम कह रहे हैं कि समाज, तो इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे समाज के सभी व्यक्ति इस दु”कर्म में लिप्त हैं। अनुरोध सिर्फ इतना है कि जब दु”कर्म हो रहा है, बेटियां भ्रूण में मारी जा रही हैं और हम कुछ कर नहीं पा रहे हैं, तो कम से कम मैं तो अपने आपको निर्दो”ा नहीं मानता। कवि ने इस विद्रूपता को भी पूरी ि’ाद्दत से अपनी एक कविता में व्यक्त किया है। लिखा है-क्यों पुत्र पर अपनी जान छिडकते हैं…पुत्री को िझडकते और चाहरदीवारी में घेरते हैं…अब तो वह रहे ही न…इसलिए भ्रूण ही कुचलते हैं। मुझे लगता है कि मडबैयाजी ने अपनी किताब के लिए जो ‘ाी”ाZक चुना…´कितने पानी में हैं आप` वह बहुत सारगभिZत है। उसमें हर ज्वलंत मसले पर समाज को आईना दिखाने की एक सार्थक कोि’ा’ा की गई है। अब समय को ही लीजिए। हम जानते हैं कि जीवन का एक-एक पल, एक-एक क्षण कीमती है, पर क्या हम समय की व्ौसी कद्र करते हैं, जैसी की जानी चाहिए। कवि ने इस संबंध में भी विस्तार से प्रका’ा डाला है। लिखा है-हम समय के साथ मिल पाते नहीं क्यों… हम समय के साथ चल पाते नहीं क्यों… हम समय के साथ जब करते मजाक… जब समय करता हमारे साथ, सह पाते नहीं क्यों…। यहां सिर्फ समय का महत्व ही नहीं बताया गया है, बल्कि समय को आधार बनाकर अपने विचारों को पवित्र करने का संदे’ा भी दिया गया है। लिखा है-समय के हर प्रहर की अंि’ाका… व्यर्थ में इसको न खोएं… खोंट कर हम खेत खरपतवार बिन जैसे बनाते… ठीक व्ौसे ही प्रदूि”ात भावनाओं को विदा कर… जिंदगी रो’ान बनाएं…। जब समाज अपने रास्ते से भटक जाता है, तो ऐसा भी होता कि अपात्रों का सम्मान होने लगता है, जबकि सुपात्रों का तिरस्कार। कवि ने इस पीडा को भी व्यक्त किया है। लिखा है-कैसे, कैसे लोग हो गए… जिन्हें देख अप’ाकुन हुआ करता था… अब प्रणाम करना पडता है…ये पूजा के जोग हो गए… कैसे-कैसे लोग हो गए…। नसीहतें यहीं आकर समाप्त नहीं होंती, बल्कि यह भी लिखा है-बैठकर ऊंगने से नहीं, इधर-उधर सूंघने से नहीं, सोते रहकर सपने देखने से नहीं… काम, करने से होते हैं…। इसी कविता में आजकल के साहित्य के चलन पर भी प्रहार किया गया है। लिखा है-काव्य गुनगुनाने से नहीं… तुक मिलाने से नहीं… ‘ाब्दों को जोडने से नहीं… विचारों को जीने से रचे जाते हैं…। दरअसल, साहित्य में आजकल कुछ भी हो रहा है। तब उसे देखकर मडबैयाजी जैसे सौ टंच ‘ाुद्Ëा साहित्यकार का चिंतित होना लाजिमी है। कवि कहीं-कहीं दार्शनिक भी हो उठे हैं। लिखा है-संसार तो ऐसे ही चलता आया है… ऐसे ही चल रहा है…और ऐसे ही चलता रहेगा…यह तो तुम्हे सोचना है कि…स्वयं कहां खडे हो…। कितना जमीन में गडे हो…और कितना सामने अडे हो…अगला पांव कहां पडेगा…या वक्त का तमाचा…किस गाल पर पडेगा…। इस कविता में कवि ने साफ संदे’ा दिया है कि बस आगे ही बढते रहो, अपनी विफलताओं का दो”ा दूसरों को न दो। एक छोटी-सी कविता में कवि ने बुंदेलखंड की तकलीफ का भी वर्णन किया है। लिखा है-वे सरकारी मदद पहुंचाने से पूर्व सर्वे करने…यानी देखने आए थे गरीबी, पिछडे बुंदेलखंड की… आकलन करने आए थे आर्थिक स्थिति मध्यखंड की…। नहीं गए गांव में, खेत में, खलिहान में… ´होरी` से मिले नहीं, होटल से हिले नहीं…कहते रहे आवेदन दे जाओ…मिलकर रहो, प्यार से रहो…देखो तो कितना मालामाल है बुंदेलखंड, आंखे सेंककर पेट भरते रहो…देखकर खजुराहो…। चंद पंक्तियों में बुंदेलखंड की उपेक्षा का ऐसा वर्णन भाई कैला’ा मडबैया ही कर सकते हैं।
समाज के बदलते हुए मापदंडों पर भी उन्होंने प्रका’ा डाला है। लिखा है-अब यह भी गारंटी नहीं कि आप सीधे चलोगे, तो एक्सीडेंट नहीं होगा…क्योंकि अगर सामने वाला टेढा चलने पर आमादा हो, तो आप कितने ही सीधे चलो, वह तो आप पर चढेगा…। इस कविता में समाज में जो अटपटा होने लगा है, प्राकृतिक नियमों के विरुद्Ëा, उस पर चुटीली ‘ौली में प्रका’ा डाला गया है। लोगों की कथनी और करनी में जो अंतर आया है, उस पर भी कवि ने रो’ानी डाली है। लिखा है-कैसे बेहतर मार्ग पकड लें…पथ पर अपने पांव जकड लें…स्वयं भेडिया चिल्लाता जब…भेडिया आया…। आगे लिखा है-सोने वाले जगने का संदे’ा दे रहे…सभी चोर उपदे’ा दे रहे…। ´कितने पानी में हैं आप` में दीपावली भी आई है। कवि ने दीपावली को प्रतीक बनाकर परस्पर प्रेम बढाने का संदे’ा दिया है। लिखा है-दीवाली है अगर, दिलों से आपस में मिल लिया… जहां अंधेरा देखा, बढकर एक दीया रख दिया…। यह तो हम जानते ही हैं कि मनु”य गुण और दो”ाों की खान होता है। न तो कोई इंसान पूरी तरह खराब होता है और न ही पूरी तरह गुणवान। दरअसल, हम सब गुणों और दुगुZणों के समुच्य हैं। यह बात हम पर निर्भर करती है कि हम अपने दुगुZणों को प्रोत्साहित करते हैं या सद्गुणों को। कवि ने अपनी एक कविता में इस पर भी गहराई से प्रका’ा डाला है। साथ ही यह संदे’ा भी दिया है कि कोई चोर तब तक ही सद्चरित्र माना जाता है, जब तक कि वह पकडा न जाए। लिखा है- सबके भीतर रावण बैठा, सबके भीतर राम… जिसका पकड गया है रावण, वही हुआ बदनाम…। यहां से आगे बढकर कवि धर्म को परिभाि”ात करने लगते हैं। लिखा है-धर्म आत्मा का स्वभाव है, निजता का भावार्थ… सडकों के धमोZत्सव में अकसर होता है स्वार्थ…। इस कविता में बात तो और भी आगे तक गई है, पर उसकी चचाZ ठीक नहीं है। पता नहीं, सुनकर किसकी भावनाएं आहत हो जाएं। आपको एक सुझाव देना चाहूंगा। ´कितने पानी में हैं आप` में ´संत ही क्यों हुआ\` ‘ाी”ाZक से एक कविता लिखी गई है। इस कविता को देखकर कवि के साहस को प्रणाम करने का मन करता है। इस युग में खरी बात कहने वाले कबीर जैसे लोगों को कौन पूछता है। चलन तो यह चल पडा है कि अगर कहीं से कोई आवाज उठे, तो मुंह बंद करवा दो। सरकारें भी मुंह बंद करवाने का काम करने लगी हैं, तो तथाकथित धर्मगुरु भी इसके अपवाद नहीं रह गए हैं। तब सच बोलने का खतरा उठाना बहुत जोखिम का काम है। बोलने वाले मुंह में लोग नोट ठूंस देते हैं और यदि सामने वाला नोटों से भी नहीं मानता है, तो फिर डंडा तो हमारा ऊंचा है ही। इस माहौल में मडबैयाजी ने खरी-खरी कहने की हिम्मत जुटाई। यह हिम्मत सराहनीय है। आप लोग सोच रहे होंगे कि ये व्यक्ति किताब की समीक्षा कर रहा है या कैला’ा मडबैया और उनकी किताब का गुणगान\ हर कृति में भा”ाागत खामियां होती ही हैं, मगर खामियों को ढूंढ निकालना जितना आसान है, कुछ लिखना उतना ही कठिन। इसलिए अपन दूरबीन लेकर छेद ढूंढने की संस्कृति पर वि’वास नहीं करते। जो लिखा गया, वह अद्भुत है और मैं इस नि”क”ाZ पर पहुंचा हूं कि ´कितने पानी में हैं आप` न केवल पठनीय है, बल्कि संग्रहणीय भी है। धन्यवाद।