हीनभावना की शिकार है हिन्दी

hindi hai ham{स्वेता सिंह **}
घर के दरवाजे पर जो लोग ‘बी वेअर ऑफ डॉग’लिखते हैं उन्हें ‘कुत्तों से सावधान’ लिखने वालों से बेहतर और सभ्य होने का अभिमान होता है। इसकी वजह आर्थिक और सामाजिक दोनों ही हैं। वैश्विक विकास के साथ ही सांस्कृतिक और भाषाई गुलामी भी भारत में पैर पसारने लगी। सड़क से संसद तक अंग्रेजी का बोलबाला है। हिन्दी के साथ अन्याय अंग्रेजी ने नहीं बल्कि गुलामी की मानसिकता ने की है। हम शारीरिक गुलामी से आजाद हुए हैं मानसिक गुलामी से अभी भी हमारा समाज उबरा नहीं है।

हिंदी को राजभाषा का दर्जा जरूर दे दिया गया है, लेकिन जितनी उपेक्षित वह आजादी के समय थी उतनी ही आज भी है। आजादी के तुरंत बाद जब हिंदी में कार की नंबर प्लेट होने के कारण सांसद सेठ दुर्गादास के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने कार्रवाई की, तो उन्होंने संविधान सभा में घटना का जिक्र करते हुए आजादी के बाद भी राष्ट्रीय भाषा के इस्तेमाल पर कार्रवाई को शर्मनाक और आश्चर्यजनक बताया था।  आलम यह है कि आज भी यदि आपके कार का नंबर प्लेट अंग्रेजी में नहीं है तो आपको जुर्माना देना पड़ेगा। आपको याद हो तो 1970 में सुप्रीम कोर्ट ने राजनेता राज नारायण की याचिका पर सुनवाई से सिर्फ इसलिए इन्कार कर दिया था, क्योंकि वह हिंदी में बहस करना चाहते थे।

बाद में हिंदी को सरकार की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया, बल्कि सरकार पर इसके प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी भी डाली गई। इसके लिए हर साल पहली से 15 सितंबर तक हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है। अफसोस इस बात पर है कि आज हिन्दी भाषी खुद ही हीनभावना के शिकार हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह हिन्दी भाषा का आर्थिक पिछड़ापन है।

जिस सरकार पर हिन्दी के विकास की जिम्मेदारी थी वह सरकार हर वक्त उदासीन रही। सरकार को कौन कहे जरा अपने न्यायालयों पर नजर दौड़ाएं। उच्चतम न्यायालय अदालती कार्यवाही तो छोड़ो वह उससे इतर होने वाले पत्राचार व सूचनाओं की जानकारी भी हिंदी में देने को तैयार नहीं है। और तो और गृहमंत्रालय के राजभाषा विभाग के अनुरोध के बावजूद सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों (सुप्रीम कोर्ट रिपो‌र्ट्स) का प्रकाशन हिंदी में करने को राजी नहीं है।

अगर दुनिया मानती है कि भारत एक महाशक्ति है तो उसे देश की एक भाषा को मंजूर करना होगा। और फिर, भारत की राजभाषा तो हिंदी है ही। संपर्क भाषा के रूप में भी पूरे भारत में हिंदी के सामने कोई चुनौती नहीं है। अब तो दक्षिण भारत का रवैया भी बदला है और हिंदी को सहृदयता के साथ अपनाया जाने लगा है। एक अनुमान के अनुसार 2050 तक हिन्दी बोलने वालों की संख्या 2 बिलियन पार कर जायेगी । इसके पीछे कई मौलिक कारण हैं । मसलन भारत की जनसंख्या 1.6 बिलियन के पार होगी । इनमे से 95 फीसदी जनसंख्या हिन्दी बोलने वालों की होगी । 50 फीसदी की मौलिक भाषा होगी तथा 45 फीसदी की द्वितीय भाषा होगी । इसी तरह पाकिस्तान तथा बांग्लादेश की कुल जनसंख्या 600 मिलीयन से ज्यादा होगी । इनमे से 5 फीसदी की मौलिक तथा 75 फीसदी की द्वितीय भाषा होगी । इस तरह भारतीय उपमहाद्वीप मे हिंदी – उर्दू  बोलने वालों की संख्या 1.9 बिलीयन के आसपास होगी । इसके अलावा फिजी, नेपाल, श्रीलंका, सऊदी अरब, मॉरिशस, सूरीनाम आदि देशों मे अच्छी संख्या मे हिंदी बोलने वाले होंगे । चलिए एक बात की खुशी है कि आर्थिक पिछड़ेपन के बावजूद, हर सकंट से जूझकर हिन्दी हर दिल में अपनी जगह बनाती जा रही है।

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**लेखक स्वतंत्र पत्रकार है *लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और आई.एन.वी.सी का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं।

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