मैं नदी हूँ
मैं तुम्हारे पास आऊंगी
तुम समन्दर हो
तुम्हे क्योंकर बुलाऊंगी
मैं तटों के बीच बहती आ रही कल-कल
नाम लेती है तुम्हारा हर लहर चंचल
तुम ह्रदय के द्वार अपने खोलकर रखना
मैं सुकोमल भावना सी आ समाऊँगी
मैं नदी हूँ
मैं तुम्हारे पास आऊंगी !
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कट गया लो एक टूटा और बिखरा दिन
बढ़ गया फिर दर्द का कुछ ऋण !
फिर समन्दर का अहम आहत हुआ
दर्द से दुहरी हुई नदिया
होठ भींचे स्वर दबे हैं कंठ में
भीगता है बे-जुबाँ तकिया
देह पत्थर हो गई है फिर अहिल्या की
ठोकरों के चिन्ह हैं अनगिन !!
बढ़ गया फिर दर्द का कुछ ऋण !
जिस नजर में चाँद रहता था कभी
अब उसे बस दाग दिखता है
क्यों विधाता फूल की तकदीर में
ओस लिखकर आग लिखता है
चांदनी का दूधिया रंग हो गया नीला
डस गयी संदेह की नागिन !!
बढ़ गया फिर दर्द का कुछ ऋण!
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सरिता शर्मा
निवास दिल्ली