संगीता शर्मा की कविता – विजयीभवः

कभी नहीं देखा ऐसा मंज़र
और न कभी देखना चाहती हूँ
चश्मदीद नहीं बनना चाहती
ऐसी किसी भी आपदा का / शाश्वत सत्य का……….
दृढ / अडिग प्रहरी से विद्यमान
पाषाण / चीड़ / देवदार / हरसिंगार
सब………….सब के सब
श्वेत कपास से बिखर गए है
यत्र / तत्र / सर्वत्र …………

तीव्र उफ़ान के तीव्र बहाव में बह गया समस्त जनमानस
ताश के पत्तों सी ढह गई इमारतें
प्रकृति का प्रचंड , प्रलयंकारी स्वरूप
लहरों की अकुलाहट / छटपटाहट / खीज / क्रोध / आक्रोश
जैसे खड़ी हो सुरसा सी मुहँ बाहे
आज ही निगलने को आतुर हो सबको

गंगा / अलकनंदा / मंदाकिनी में बहता
शैशव / यौवन / बुढ़ापा
सरिता सबकी इच्छा / अनिच्छा के बावजूद
आज अनेक आहुतियाँ माँग बैठी है
देवभूमि हो गई है मृतप्राय
खुशहाली – बदहाली में
खूबसूरती – बदसूरती में
यकायक………………………
कब ???????
कैसे ??????
तब्दील हो गई
इसका किंचित मात्र भी आभास न हुआ

प्रस्तरों पर चहुँ ओर
पसरी पड़ी है साँसे
विव्हल हो रहा है मानस
अंतस तक व्याप्त है हाहाकार…………………..
रुदन / क्रंदन सब व्यर्थ प्रतीत होते है
राहत भी अब बेबुनियादी सी लगती है
कोई भी आवाज़
अब सुनाई नहीं पड़ती कानों में
जो भेद दे विनाश………………..
फैला दे राहत…………………..
इतने सब के बावजूद भी सियासत बरकरार है
सेकी जा रही है रोटियाँ लगातार…………….
एक – एक कर मर रही है संवेदनाएँ
चकनाचूर हो रहा है अन्तस
रौंदा / कुचला जा रहा है प्रत्येक जनमानस

और ऐसे में आम आदमी
अब भी अपदस्त सा खड़ा ताक रहा है
उसी परमपिता परमात्मा की ओर
लगा रहा है गुहार
कि कोई दैवी शक्ति आए
और निजात दिलाए उसे इस प्रलय से
बचा ले जाए उसे
ऐसे सुरक्षित स्थल की ओर
जहाँ फिर कभी कोई
विनाश / तबाही / कालचक्र / अमानवीयता न घेरे उसे
जहाँ कभी कोई
मृतप्राय सांसों पर न करे राजनीति ……………….
अपितु जलाये अपने भीतर
ज्वाला / मानवीय मूल्य / कुछ कर गुज़रने का जज़्बा

आज खुश बहुत हूँ मैं
कि उस परब्रह्म की असीम अनुकम्पा से
पराजित होने पर भी
स्वयं को विजयी महसूस कर धन्य हूँ ……………..
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Sangeeta Sharma poet,poet Sangeeta Sharma,Sangeeta Sharmaसंगीता शर्मा

एयरपोर्ट अथोरटी ऑफ़ इंडिया में कार्यरत

निवास नई दिल्ली ,

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