पद, पैसा, पवार और प्रतिष्ठा सविंधान के ज़रीय क्या अंग्रेजी के लियें आरक्षित करवा दी गई हैं जबकि वोट मांगना, ज़ुल्म करना ,पुलिया डंडा आदि आदि सब कुछ जो बहुत ही असभ्य सा हैं उसे भारतीय भाषाओ के लियें छोड़ दिया गया हैं ? ये एक विडम्बना ही हैं अपने ही देश में ,अपनी ही भाषाओ की गरिमा के लियें बहुत सारे लोगो को सड़क पर उतरना पड़ा ,भारतीय भाषा आंदोलन को आज 30 साल होने को आएं हैं पर संसद में बैठे सभी जनप्रतिनिधियों को भारतीय भाषाओ की गरिमा ज़रा सा भी ख्याल नहीं ! आखिर ख्याल हो भी क्यों ,क्योकि सभी नेताओ को पांच साल में एक बार वोट मांगने के लियें जो जनता के बीच जाकर भारतीय भाषाओ की ज़रुरत जो पड़ती हैं ! पुष्पेन्द्र चैहान अपना सब कुछ छोड़ कर लगभग 30 से भारतीय भाषाओ की गरिमा की लड़ाई लड़ रहे हैं और धरने पर बैठे हैं ! मैंने इनके मंच से अटल आडवाणी को कई बार लम्बे लम्बे भाषण देते सूना हैं ! मैंने v p singh ज्ञानी जेलसिंह, नीतिश, पासवान, देवीलाल, चतुरानंद मिश्र सहित सभी दलों एवं मान्यताओं के लोग एक साथ धरने पर बैठे हुए भी देखा है ! इस आर्ट्रिकल को पोस्ट करने से पहले मैंने कई बार पढ़ा और हर बार मेरे ज़हन में बहुत सारे सवाल भारतीय भाषाओ की गरिमा के लियें उठ खड़े हुए हैं ! मुझे नहीं पता की इन सवालो के जबाब कब और किस तरहा मिलेंगे …. ज़ाकिर हुसैन !!
देश से अंग्रेजी की गुलामी को दूर करने के बजाय संविधान, संसंद एवं विधानसभाओं की देख रेख में देश के हुक्मरान अंग्रेजी की गुलामी को देश में मजबूत बनाने में लगे है
{ पुष्पेन्द्र चैहान व् देवसिंह रावत } पहली बार ऐसा हुआ कि एक मुश्त अंग्रेजी का बर्चस्व हटाने की बजाय अंग्रेजी के एक -2 शब्द को हटाने पर सौदेबाजी हो रही है। आने वाले दिनों में भाषा का सवाल और कठिन होने जा रहा है। लम्बे समय से चल रहे भाषायी आंदोलन पर सरकार एवं संसद द्वारा लिया गया चालाकी पूर्व निर्णय स्वयं में सिद्ध कर रहा है कि हिन्दुस्तान में अंग्रेजी की जडें कितनी गहरी हो चूकही है।
संविधान, संसद एवं विधान सभाओं की देखरेख में देश के सभी हुक्मरान अंग्रेजी की जड़ों को मजबूत बनाने में जुटे हुए है। आश्चर्यजनक स्थिति यह है कि भारतीय न्यायपालिका ने भी सचमुच आंखों पर पट्टी बांध ली है। न्यायपालिका ‘ विक्टोरिया’ की कुर्सी पर बैठकर अंग्रेजी में फैसले दे रही है। छात्रों के आंदोलन पर सरकार द्वारा लिया गया निर्णय मात्र निंदा के योग्य है।
वर्तमान भाषायी सवाल पर भारतीय न्यायालय का हास्यास्पद फैसला देखिए। सी-सैट(अंग्रेजीकरण) के खिलाफ दायर वाद पर न्यायालय ने संघ लोकसेवा आयोग को ही यह जिम्मेदारी सौंप दी कि वह भारतीय भाषाओं के अधिकार पर फैसला करे। यानी चोर को ही न्यायालय ने दरोगा बना दिया। न्यायालय की कुटिल मंशा को भांपते हुए आयोग ने छठे हुए अंग्रेज नौकरशाहों की कमेटी गठित कर दी। आज उसी कमेटी की आड़ में संसद एवं सरकार भारतीय भाषाओं को उनका हक देने के सवाल पर मुंह छिपा गयी।
भारतीय संसद ने 18 जनवरी 1968 को भारत की भाषाओं के लिए एक प्रस्ताव पारित किया। यही प्रस्ताव 11 जनवरी 1991 को पुन्न पारित हुआ(संसद में आंदोलनकारियों द्वारा नारेबाजी एवं सदन में नीचे कूदने की घटना के अगले दिन)। संसद के दोनों सदनों के लगभग 365 सांसदों ने राजीव गांधी एवं वीपीसिंह सरकार के दौरान ज्ञापन भी दिये गये। लेकिन संसद ने उन भाषायी प्रस्तावों को तहखाने से निकालने से मना कर दिया।
थोड़ा और पीछे चलते हैं 16 अगस्त 1988 से संघ लोकसेवा आयोग पर संसदीय प्रस्ताव को लागू कराने के लिए विश्व का सबसे बडा धरना दिया गया। आयोग अपनी सारी परीक्षाओं से एक मुश्त अंग्रेजी का बर्चस्व समाप्त करे। भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के बराबर आरक्षण दे। यह मांग उस दौर से सभी शीर्ष राजनेताओं ने सामूहिक रूप से आयोग भवन पर धरने पर बैठकर की। लगभग डेढ दशक तक चले उस धरने में उस दौर के सभी शीर्ष राजनेताओं, पत्रकारों एवं अन्य सामाजिक हस्तियों ने शिरकत की। ज्ञानी जेलसिंह, अटल, आडवीणी, वीपीसिंह, नीतिश, पासवान, देवीलाल, चतुरानंद मिश्र सहित सभी दलों एवं मान्यताओं के लोग एक साथ धरने पर बैठे।
भारतीय भाषाओं के संघर्ष का एक अनूठा-अदभुत सामूहिक मंचन।
16 फरवरी 2001 को भी प्रातः8 बजे एक बर्बरतापूर्ण दृश्य भी दिल्लीवालों ने देखा। अटल- आडवाणी सरकार की देखरेख में संघ लोकसेवा आयोग भवन पर वर्षो से बैठे भाषा आंदोलनकारियों को उनके तम्बू सहित उठा-2 कर शाहजहां रोड पर फेंक दिया गया। 21 फरवरी 2001 को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने हम लोगों को बुला कर ‘ठीक’से समझा दिया। अटल जी की वर्तमान सरकार ने भी आज आंदोलनकारियों को ‘ठीक’ से समझा दिया दिया है।
एकमुश्त अंग्रेजी का वर्चस्व हिन्दुस्तान से समाप्त हो इसके लिए शिक्षा-परीक्षा से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त होनी आवश्यक है। संघ लोक सेवा आयोग एवं सर्वोच्च न्यायालय से अंग्रेजी की सफाई भी जरूरी है। इसी मांग को लेकर भारतीय भाषा आंदोलन 21 अप्रैल 2013 से निरंतर संसद की चैखट, राष्ट्रीय धरना स्थल, जंतर मंतर पर आंदोलनरत है। भारतीय भाषाओं के इस अभियान को राष्ट्रीय आंदोलन बना सकती है। जंतर मंतर पर वर्षो से इसी मांग के लिए बैठे आंदोलनकारियों पर देश भरोसा कर सकता है।
****
परिचय – : पुष्पेन्द्र चैहान – महासचिव भारतीय भाषा आंदोलन , राष्ट्रीय धरना स्थल जंतर मंतर दिल्ली ! 29 से ज़्यादा वक़्त से भारतीय भाषा आंदोलन की अगुवाई कर रहे हैं ! भारतीय भाषाओं की गरिमा के लियें बार संसद में भी कूद गए थे !
*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC.