वनों के बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। यह छत्तीसगढ़ का सौभाग्य है कि यह राज्य वनसंपदा से परिपूर्ण है। यहां के जंगलों में न केवल प्रदेश के पर्यावरण को बेहतर किया है, बल्कि इनकी वजह से यह प्रदेश सांस्कृतिक रूप से भी संपन्न हुआ है। वनों के महत्व को समझते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने इनके प्रबंधन, संरक्षण और संवर्धन की दिशा में जो प्रयास किए हैं, उसकी सराहना देश भर में हो रही है।
छत्तीसगढ़ के कुल भौगोलिक क्षेत्र एक लाख 35 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में से 44 प्रतिशत इलाका अर्थात 59 हजार 772 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र वनों से परिपूर्ण है। छत्तीसगढ़ राज्य वन आवरण के मामले में मध्यप्रदेश और अरूणाचल के बाद तीसरे नम्बर पर है। छत्तीसगढ़ सहित देश की आर्थिक व्यवस्था में यहा के हरे-भरे वनों, बेशकीमती वनोपजों और मेहनतकश वनवासियों का महत्वपूर्ण योगदान है। राज्य के जंगलों के संरक्षण और विकास के साथ यहां के वनवासियों की आमदनी का प्रमुख साधन बनाने के लिए मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में किए गए प्रयासों के उत्साहजनक नतीजे सामने आए हैं।
छत्तीसगढ़ के जंगलों में प्रचुर मात्रा में लघु वनोपज पाये जाते हैं। यहां लगभग एक सौ साठ प्रकार के लघु वनोपजों का उत्पादन होता है। अनुमान के अनुसार करीब साढ़े आठ सौ करोड़ रुपए का सालाना व्यापार इन लघु वनोपजों के माध्यम से होता है। ये लघु वनोपज यहां के वनवासियों और गरीब परिवारों की आजीविका के महत्वपूर्ण साधन हैं। राज्य सरकार इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए इनके वास्तविक संग्राहकों के हित में इनकी खरीदी, व्यापार और प्रसंस्करण के लिए पुख्ता इंतजाम किए हुए है। छत्तीसगढ़ राज्य लघु वनोपज सहकारी संघ का गठन कर उसे इनकी खरीदी और व्यापार की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। इससे जहां एक ओर इस व्यवसाय में बिचौलियों की भूमिका समाप्त हुई, वहीं दूसरी ओर आदिवासियों और वनवासियों में अपने व्यवसाय के प्रति अपनापन तथा प्रबंधन के प्रति उत्तरदायित्व की भावना का विकास हुआ। संग्राहकों के मेहनत का सम्मान करते हुए राज्य सरकार द्वारा पिछले दस वर्षों में लघु वनोपजों की सरकारी खरीदी मूल्य में कई बार वृद्धि की गयी । यहां के जंगलों में प्रमुख रूप से तेन्दूपत्ता, साल-बीज, हर्रा, बेहड़ा, गोंद, चिरौंजी, आंवला, शहद आदि लघु वनोपज पाये जाते हैं।
राज्य सरकार द्वारा संग्राहकों को तेन्दूपत्ता तोड़ाई का वाजिब मूल्य दिलाने के लिए वर्ष 2013 में इसका संग्रहण मूल्य 1100 रुपए से बढ़ाकर 1200 प्रति मानक बोरा कर दी गयी है। मूल्य वृद्धि के फलस्वरूप संग्राहकों में अपने कार्य के प्रति उत्साह का संचार हुआ और इस वर्ष 2014 में तेरह लाख 76 हजार परिवारों ने बीड़ी बनाने योग्य अच्छी गुणवत्ता के 14 लाख 92 हजार से अधिक मानक बोरा तेन्दूपत्ता का संग्रहण किया। इससे पारिश्रमिक के रूप में उन्हें करीब 180 करोड़ रुपए की राशि वितरित की गई। इसी तरह पिछले संग्रहण वर्ष 2012 के लाभांश के रूप में संग्राहकों को करीब 310 करोड़ रुपए की प्रोत्साहन राशि बांटी गई। इस वर्ष संग्रहण वर्ष 2013 के बोनस के रूप में संग्राहकों को 82 करोड़ रुपए से अधिक की राशि बांटी जाएगी। तेन्दूपत्ता तोड़ाई कार्य में लगे संग्राहकों के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हुए राज्य सरकार ने उन्हें कांटा और जलन से अपने पैरों के बचाव के लिए वर्ष 2006 से प्रति वर्ष चरणपादुका वितरित करने का फैसला किया। वर्ष 2013 में 12 लाख 55 हजार तेन्दूपत्ता संग्राहक परिवारों के एक महिला सदस्य को एक सिन्थेटिक साड़ी और एक पुरूष सदस्य को एक जोड़ी चरणपादुका वितरित की गई। इस वर्ष 2014 में 12 लाख 49 हजार संग्राहक परिवार की एक महिला सदस्य को एक जोड़ी चप्पल वितरण की कार्यवाही जारी है। तेन्दूपत्ता संग्राहक परिवार के बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए वर्ष 2011 से राज्य सरकार द्वारा शिक्षा प्रोत्साहन योजना भी शुरू की गयी है। इस योजना के तहत स्कूली बच्चों को छात्रवृत्ति देने के साथ ही मेडिकल, इंजीनियरिंग, कानून, नर्सिंग आदि व्यावसायिक शिक्षा के लिए संग्राहक परिवार के बच्चों का 25 हजार रुपए तक मदद दी जा रही है। इसके साथ ही इस वर्ष से तेन्दूपत्ता संग्राहक परिवारों के गैर व्यावसायिक स्नातक पढ़ाई करने वाले छात्रों को भी तीन सालों में 12 हजार रुपए तक छात्रवृत्ति देने का निर्णय लिया गया है।संग्रहण कार्य में लगे साढ़े तेरह लाख से अधिक श्रमिक परिवारों को भारतीय जीवन बीमा निगम के सहयोग से बीमा भी कराया गया है। परिवार के मुखिया की जनश्री बीमा योजना और आश्रित परिवार जनों की समूह बीमा योजना के तहत बीमा सुरक्षा प्रदान की गई है। जनश्री बीमा योजना के अंतर्गत वित्तीय वर्ष 2013-14 में 2139 व्यक्तियों को 4 करोड़ 76 लाख रुपए का भुगतान किया गया। तेन्दूपत्ता के बाद दूसरा प्रमुख लघु वनोपज साल बीज है। इसका संग्रहण करके आदिवासी मौसमी रोजगार के साथ अतिरिक्त आमदनी अर्जित करते हैं। राज्य सरकार द्वारा इस वर्ष 2014 में साल-बीज का संग्रहण दर पांच रुपए प्रति किलोग्राम से बढ़ाकर 10 रुपए प्रति किलोग्राम किया गया है। इस वर्ष लगभग सवा लाख क्विंटल साल-बीज का संग्रहण किया गया और संग्राहकों को 12 करोड़ 56 लाख रुपए का भुगतान किया गया। इसी तरह प्रदेश के जंगलों से प्रति वर्ष लगभग पचास हजार क्विंटल हर्रा और 1500 क्विंटल गोंद का संग्रहण किया जाता है।
छत्तीसगढ़ में लाख की खेती यहां के वनवासियों के लिए अतिरिक्त आमदनी के एक प्रमुख जरिया के रुप में उभरकर आयी है। पलाश, कोसम और बेर के वृक्षों में कृमिपालन के जरिए लाख उत्पादन में वर्ष 2012-13 में तीन हजार 500 मीटरिक टन की पैदावार लेकर छत्तीसगढ़ ने झारखण्ड के बाद तीसरी बार लगातार दूसरा स्थान हासिल किया है। देश के कुला उत्पादन का 26 प्रतिशत लाख छत्तीसगढ़ में उत्पादित होता है। यहां उत्पादित लाख का कुल बाजार मूल्य करीब 114 करोड़ रुपए है। लाख उत्पादन को प्रोत्साहित करने और मार्गदर्शन के लिए राजधानी रायपुर में राज्य स्तरीय लाख प्रकोष्ठ का गठन किया गया है। इसके साथ ही स्वर्ण जयंती ग्राम स्व-रोजगार योजना के अंतर्गत लाख की खेती के लिए केन्द्र सरकार द्वारा छत्तीसगढ़ के लिए साढ़े चौदह करोड़ रुपए की एक विशेष परियोजना की मंजूरी दी गयी है। इसका लाभ गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे करीब 13 हजार परिवारों को मिल रहा है। करीब 47 हजार किसानों को कृमिपालन का प्रशिक्षण प्रदान कर उन्हें स्वरोजगार के लिए लाख की खेती से जोड़ा गया है।
राज्य में बहुत बड़ी मात्रा में माहुल पत्तों का उत्पादन होता है। पहले यह पत्ता कच्चे स्वरूप में अन्य राज्यों को बेच दिया जाता था। लेकिन स्थानीय ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध कराने की नीयत से राज्य में 20 माहुल पत्ता प्रसंस्करण इकाईयां लगायी गयी हैं। इन केन्द्रों पर स्व-सहायता समूहों द्वारा माहुल पत्ता का उपचार कर मशीनों द्वारा दोना पत्तल का निर्माण किया जा रहा है। पिछले वर्ष लगभग 25 लाख रुपए के दोना-पत्तल का निर्माण कर बेचा गया है। वन क्षेत्रों के निवासी बड़ी मात्रा में शहद भी एकत्र करते हैं । इन शहद संग्राहकों को उचित मूल्य दिलाने के लिए राज्य सरकार द्वारा सीधे संग्राहकों से शहद खरीदा जाता है। संग्रहित शहद के प्रसंस्करण और बॉटलिंग के लिए राज्य के बिलासपुर, जशपुर, भानुप्रतापपुर और कवर्धा में चार शहद प्रसंस्करण केन्द्र स्थापित किए गए हैं। छत्तीसगढ़ हर्बल ब्राण्ड शहद की बाजार में मांग भी काफी अधिक है।
जंगलों की सुरक्षा के लिए राज्य में जन-भागीदारी को आधार बनाते हुए संयुक्त वन प्रबंधन नीति को आधार बनाया गया है। राज्य के लगभग 20 हजार गांवों में से वनक्षेत्र की सीमा से पांच किलोमीटर के भीतर लगभग ग्यारह हजार गांव आते हैं। संयुक्त वन प्रबंधन नीति के तहत इन गांवों में सात हजार 887 वन प्रबंधन समितियां गठित की गई हैं, जिनमें 27 लाख से अधिक ग्रामीण सदस्य के रूप में शामिल हैं। इन समितियों को लगभग तैंतीस हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में जंगलों की सुरक्षा और उनके रख-रखाव तथा विकास की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। सुरक्षा के एवज में इन समितियों को उत्पादित वनोपजों की एक निश्चित हिस्सा अथवा नगद दी जाती है। वन प्रबंधन समिति के सदस्यों द्वारा वनों का अग्नि, अवैध चराई, अवैध कटाई, अवैध परिवहन, अवैध उत्खनन, अतिक्रमण और शिकार से बचाव कार्य किया जाता है तथा वन विभाग को इसमें सहयोग किया जाता है। इन समितियों की मुस्तैदी से जंगलों को बचाने मंे मदद मिली है तथा इसका लाभ भी वनवासियों को मिला है।
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