**गृह युद्ध की भेंट चढऩे तो नहीं जा रहा है इराक़ ?

**तनवीर जाफरी
इराक़ के हालात पूर्वानुमान व आशंकाओं के अनुरूप बिगड़ते दिखाई दे रहे हैं। अप्रैल 2003 में सद्दाम हुसैन के सत्ता से बेदखल होने के बाद से ही इस बात का अंदाज़ा लगने लगा था कि अब भविष्य में इराक़ की सत्ता की जंग स्थानीय शिया व सुन्नी समुदायों के मध्य अवश्य छिड़ेगी। गौरतलब है कि सद्दाम हुसैन अरब सुन्नी समुदाय से संबंध रखने वाले एक सैन्य तानाशाह थे जिन्होंने अहमद हसन अल बक़ऱ् से 16 जुलाई 1979 को सत्ता संभालने के बाद अपनी सैन्य शक्ति के बल पर 9 अपै्रल 2003 तक इराक़ पर शासन किया। इराक में शिया मुस्लिम समुदाय के लेगों की आबादी 60 प्रतिशत है जबकि सुन्नी समुदाय की आबादी 31 प्रतिशत है। अपने शासनकाल के दौरान सद्दाम हुसैन ने न ही शिया समुदाय के लोगों को सिर उठाने दिया न ही सुन्नी व कुर्द समुदाय के अपने राजनैतिक विरोधियों के किसी भी प्रकार के विरोध को सिर उठाने दिया। जि़द्दी स्वभाव के सद्दाम हुसैन ने 24 वर्षों तक अपनी तानाशाही प्रवृति व क्रूरता के बल पर अपने सभी विरोधियों को बखूबी बलपूर्वक कुचला।

बहरहाल, सद्दाम हुसैन की इसी क्रूरता व तानाशाही प्रवृति ने अमेरिका को एक उपयुक्त बहाना उपलब्ध करा दिया और आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध छेडऩे वाला अमेरिका अफगानिस्तान से होते हुए इराक तक जा पहुंचा। निश्चित रूप से 2003 से लेकर अब तक इराक़ में लाखों लोग हिंसा के शिकर हो चुके हैं। सद्दाम के सत्ता से हटते ही तथा अमेरिकी फौजों की इराक़ में मौजूदगी के दौरान ही बड़ी से बड़ी तमाम सांप्रदायिक हिंसक घटनाएं हो चुकी हंै। क्या भीड़ भरे बाज़ार, क्या धार्मिक जलसा व जुलूस तो क्या दरगाहें, मस्जिदें व मकबरे सभी को एक-दूसरे समुदाय के लोगों द्वारा निशाना बनाया जा चुका है। इस दौरान अमेरिका में स्थानीय स्तर पर बहुत तेज़ी से ऐसे स्वर बुलंद हुए जिनमें अमेरिकी फौज की इराक में मौजूदगी को गैरज़रूरी बताया गया। उधर राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने भी अपने चुनाव के दौरान अमेरिकी जनता से इराक से अमेरिकी फौज की वापसी का वादा किया था। और अमेरिका ने सद्दाम हुसैन को ‘ठिकाने’ लगाने व तेल दोहन जैसे अपने मकसद को पूरा कर गत् 18 दिसंंबर को अपने अंतिम सैनिक की इराक से वापसी घोषित कर दी। निश्चित रूप से अमेरिका ने इराक में अपनी मौजूदगी के दौरान वहां सभी समुदायों की मिली-जुली गठबंधन सरकार बनवाने से लेकर सामुदायिक हिंसा नियंत्रित करने तक में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी दौरान अमेरिका के भी हज़ारों सैनिक मारे गए। परंतु गत् 18 दिसंबर को अमेरिकी सेना के इराक छोड़ते ही अब इराक की तस्वीर बदलती दिखाई देने लगी।

इराक की गठबंधन सरकार में सुन्नियों के सबसे बड़े राजनैतिक दल इराकया के सर्वप्रमुख नेता व उपराष्ट्रपति तारिक-अल-हाशमी के विरुद्ध इराक की एक अदालत ने 19 दिसंबर को ही कथित रूप से आतंकवादी कार्रवाई में उनके शामिल होने का आरोप लगाते हुए अल-हाशमी के विरुद्ध गिर$फ्तारी का वारंट जारी कर दिया। यह खबर सुनते ही हाशिमी ने कुर्दिस्तान में जाकर पनाह ली। शिया समुदाय से संबंध रखने वाले इराकी प्रधानमंत्री नूरी-अल-मालिकी ने इस संबंध में यह कहा कि-‘हम लोग इराक की न्याय व्यवस्था में किसी तरह का हस्तक्षेप कुबूल नहीं करते। हम लोगों ने सद्दाम हुसैन पर निष्पक्ष रूप से मुकद्दमा चलाया और हम लोग अल-हाशिमी के मामले की सुनवाई भी निष्पक्ष तरीके से करेंगे’। मालिकी ने कुर्द लोगों से यह अपील भी की है कि वे अल-हाशिमी को इराक के हवाले कर दें। दूसरी ओर उपराष्ट्रपति तारिक-अल-हाशिमी ने अपने ऊपर लगाए जाने वाले सभी आरोपों से इंकार किया है तथा यह भी कहा है कि-‘मैं अल्लाह की कसम खाकर कहता हूं कि मैंने कोई गुनाह नहीं किया है’। इसके बावजूद हाशिमी कुर्दिस्तान में अपने ऊपर मुकद्दमा चलाए जाने के लिए तैयार हैं।

अल हाशिमी के भूमिगत होने के बाद पूरे इरा$क में सांप्रदायिक तनाव काफी बढ़ गया है। हिंसक वारदातें भी शुरु हो चुकी हैं। 22दिसंबर को राजधानी बगदाद में 13 ठिकानों पर भीषण बम धमाके हुए जिनमें 75 लोगों के मारे जाने तथा 200 से अधिक लोगों के घायल होने के समाचार हैं। इन घटनाओं को लेकर उपराष्ट्रपति अल-हाशिमी ने कहा है कि उनके विरुद्ध गिरफ्तारी वारंट जारी करने के बाद ही इस प्रकार की हिंसा भडक़ी है। हाशिमी के अनुसार प्रधानमंत्री मालिकी ने जो शुरुआत की है उसका रुक पाना आसान नहीं है। उन्होंने प्रधानमंत्री अल-मालिकी पर इरा$क में राष्ट्रीय संकट पैदा करने का भी आरोप लगाया है। इसी के साथ-साथ इराकी सरकार में राजनैतिक व संवैधानिक संकट भी खड़ा होता दिखाई दे रहा है। मात्र एक वर्ष पुरानी गठबंधन सरकार में इराकया दल से संबद्ध सभंी मंत्रियों ने कैबिनेट की बैठक में शामिल होने से इंकार कर दिया है। इसके जवाब में प्रधानमंत्री ने उन मंत्रियों को मंत्रिमंडल से बर्खास्त किए जाने की धमकी भी जारी कर दी है। गोया इराक की गठबंधन सरकार के दोनों ही प्रमुख पक्ष एक-दूसरे से दो-दो हाथ करने को बेचैन नज़र आ रहे हैं।

इराक के उपरोक्त संगीन राजनैतिक हालात यह समझ पाने के लिए काफी हैं कि इराक के गृह युद्ध की ओर बढऩे की संभावना अत्यंत प्रबल है। यहां इस बात का जि़क्र करना भी ज़रूरी है कि इराक़ के वर्तमान हालात अथवा वहां की संभावित गृहयुद्ध जैसी स्थिति या फिर सद्दाम हुसैन का 24 वर्षों का तानाशाही से भरा हुआ शासनकाल इन सभी हालात का केवल इराक़ की आंतरिक राजनीति से ही मात्र मतलब नहीं बल्कि इसके अतिरिक्त पूरे मुस्लिम जगत विशेषकर अरब जगत से भी इस ताज़ातरीन घटनाक्रम का सीधा संबंध है। मुस्लिम जगत के यह दो प्रमुख धड़े शिया व सुन्नी दोनों ही इराक पर वर्चस्व की लड़ाई केवल इरक़ की सत्ता के लिए ही हासिल नहीं करना चाहते बल्कि इस रास्ते पर चलते हुए यह दोनों ही समुदाय अरब जगत में भी अपना दबदबा बनाकर रखना चाहते हैं। वर्चस्व की इसी लड़ाई के रास्ते पर चलते हुए 22 सितंबर 1980 से लेकर 20 अगस्त 1988 तक ईरान इराक़ के मध्य प्रथम फारस खाड़ी युद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुआ भीषण सैन्य युद्ध भी हो चुका है। उस समय अमेरिका सद्दाम हुसैन के सहयोगी की भूमिका में था। जब 8 साल की लड़ाई के बाद दोनों ही देश काफ़ी कमज़ोर हो गए तथा एक-दूसरे से हार मानने को भी तैयार नहीं हुए तब कहीं जाकर ईरान व इराक़ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 598 के तहत युद्ध विराम पर राज़ी हुए थे। सद्दाम हुसैन के शासन के समय उसे अरब जगत के कई सुन्नी बाहुल्य देशों का भी पूरा समर्थन प्राप्त था। यह समर्थन उसे केवल इसीलिए था क्योंकि सद्दाम हुसैन एक सुन्नी अरब तानाशाह था। परंतु जब सद्दाम हुसैन ने अपनी अडिय़ल व तानाशाही प्रवृति का प्रदर्शन अरब जगत के शासकों को आंखे दिखाते हुए किया तथा अपनी सेना 1990 में कुवैत पर $कब्ज़ा जमाने की $गरज़ से वहां भेज दी तब कहीं जाकर अरब के अन्य तानाशाहों को सद्दाम हुसैन की दूरगामी राजनैतिक महत्वाकांक्षा तथा उसकी वास्तविक हकीक़त  का पता चला। उसी समय से अरब जगत के कई देश सद्दाम हुसैन के खिलाफ हो गए। और सद्दाम के इसी अकेलेपन का फायदा 2003 में उसी अमेरिका ने उठाया जिसने कि 1980 में छिड़े ईरान-इराक़ युद्ध में सद्दाम की पीठ थपथपा कर रखी थी।उधर ईरान,इरा$क स्थित शिया गुटों से अपनी पूरी हमदर्दी रखता है तथा कथित रूप से उन्हें सहयोग व समर्थन भी देता है। ऐसे में इरा$क के वर्तमान तनावपूर्ण हालात में भी ईरान की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। यह अलग बात है कि ईरान की इराक़ में भविष्य की संभावित दखल अंदाज़ी को अमेरिका किस प्रकार लेता है। जो भी हो आने वाले दिन इरा$क के लिए बेहद खतरनाक हो सकते हैं और इराक़ गृह युद्ध की भेंट चढ़ सकता है। ऐसे में देखने वाली बात यह होगी कि यदि इराक़ में भीषण नरसंहार सत्ता को लेकर होता भी है तो इसके बाद क्याइराक़ की सत्ता किसी एक समुदाय के वर्चस्व वाली सत्ता उसी प्रकार हो जाएगी जैसे कि सद्दाम हुसैन के शासनकाल में रही? या फिर इराक़ की एकता व अखंडता छिन-भिन्न हो जाएगी और पश्चिमी देशों की मंशा के मुताबिक़ इराक़ भी तीन हिस्सों में बंटकर अपने उस भारी-भरकम वजूद से हाथ धो बैठेगा जोकि पश्चिमी देशों की आंखों की भी किरकिरी बना रहता था।

**Tanveer Jafri ( columnist),(About the Author) Author  Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost  writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.
(Email : tanveerjafriamb@gmail.com)

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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC

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