-तनवीर जाफ़री-
आमतौर पर किसी भी व्यक्ति के मुंह से निकलने वाले बोल, उसके शब्द तथा उसके विचारों को उस व्यक्ति के स्वभाव, ज्ञान तथा उसकी सूझबझ से जोड़कर देखा जाता है। परंतु यदि किसी देश का प्रधानमंत्री अथवा निर्वाचित मुख्यमंत्री अपने मुंह से कोई शब्द निकालता है तो उन शब्दों को केवल उस व्यक्ति के निजी विचारों या भावनाओं मात्र से ही नहीं जोड़ा जा सकता बल्कि वह उस देश या प्रदेश के एक जिम्मेदार प्रतिनिधि की हैसियत से ही कुछ बोल रहा होता है। ऐसे में उसकी वाणी या शब्दों अथवा विचारों का संबंध उस देश या प्रदेश की गरिमा के साथ सीधेतौर पर जुड़ जाता है। हमारे देश ने 1947 से लेकर अब तक 13 प्रधानमंत्रियों को विभिन्न समयावधियों के दौरान देश के सत्ता सिंहासन पर आसीन होते हुए देखा। परंतु बड़े अफ़सोस के साथ यह बात कहनी पड़ती है कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के अब तक के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने देश के इस सर्वोच्च लोकतांत्रिक पद पर रहते हुए अपने भाषणों में अनेक बार ऐसी अमर्यादित टिप्पणियां की हैं जो प्रधानमंत्री पद की गरिमा के अनुकूल कतई नहीं कही जा सकती। यहां उन बातों का जिक्र करने से भी कोई फ़ायदा नहीं जो उन्होंने चुनाव पूर्व देश के मतदाताओं को लुभाने या उकसाने के लिए अपने चुनावी भाषणों के दौरान 2014 के लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान की थीं। हमारे देश की तिकड़मबाज़ी व झूठे आश्वासनों व झूठे वादों पर आधारित राजनीति में यदि उन्होंने 56 ईंच का सीना होने जैसे हल्के शब्दों का प्रयोग किया या देश में गुलाबी क्रांति का जिक्र कर मतदाताओं को भावनात्मक तरीके से आकर्षित करने का प्रयोग किया या काला धन देश में वापस लाकर देशवासियों के खाते में पंद्रह लाख रुपये जमा करने की लालच दी तो ऐसी सभी बातों को बकौल भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, चुनावी जुमला समझकर भूल जाना चाहिए। वैसे भी जिस समय मोदी जी भाजपा के मुख्य चुनाव प्रचारक के रूप में अपना अभियान चलाकर एक कीर्तिमान स्थापित कर रहे थे उस समय वे देश के भावी प्रधानमंत्री तो जरूर थे पंरतु प्रधानमंत्री पद की शपथ उन्होंने नहीं ली थी इसलिए उस दौर की बातों को महत्व दिया जाना कोई जरूरी नहीं है। परंतु प्रधानमंत्री पद पर विराजमान होने के बाद जब वही नरेंद मोदी बिहार के अपने भाषणों में इतिहास की गलत जानकारी पर आधारित किन्हीं घटनाओं का जिक्र करेंगे तो जाहिर है यही समझा जाएगा कि भारत का प्रधानमंत्री भारतीय इतिहास की जानकारी से ही अंजान है। जब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर नरेंद्र मोदी बिहार के मुख्यमंत्री के डीएनए की चर्चा सार्वजनिक रूप से करेंगे तो ऐसी बातें करना भी प्रधानमंत्री जैसे गौरवशाली व सर्वोच्च पद पर बैठे हुए व्यक्ति को कतई शोभा नहीं देता। और ऐसी हल्की बयानबाजी का परिणाम क्या हो सकता है और राज्य की जनता अपने मतदान द्वारा ऐसी अनर्गल बातों का किस अंदाज में जवाब दे सकती है वह भी बिहार चुनाव परिणाम में पूरे देश ने बखूबी देखा। इसी प्रकार दिल्ली विधानसभा के गत् वर्ष के चुनावों के दौरान अरविंद केजरीवाल को सत्ता में आने से रोकने के लिए भाजपा द्वारा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहयोग के साथ क्या-क्या हथकंडे नहीं अपनाए गए? आखिरकार इन चुनावों में भी नरेंद्र मोदी ने एक जनसभा में स्वयं को नसीब वाला तथा इशारों-इशारों में अरविंद केजरीवाल को बदनसीब व्यक्ति बता डाला था। जरा सोचिए आत्ममुग्धता की भी आखिर कोई इंतेहा होती है? दिल्ली की जनता को नरेंद्र मोदी द्वारा स्वयं को नसीब वाला बताना इतना नागवार गुजरा कि जो भाजपा दिल्ली में सत्ता हासिल करने के सपने संजोए बैठी थी उसे राज्य में मात्र तीन सीटें जीतकर अपनी इज़्ज़त बचानी पड़ी। यहां यह भी गौरतलब है कि दिल्ली चुनाव के इतिहास में अब तक किसी भी प्रधानमंत्री ने इतनी अधिक जनसभाओं को संबोधित नहीं किया जितनी कि नरेंद्र मोदी ने कर डाली थीं। अब एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ही देश के एक समृद्ध, प्राकृतिक सौंदर्य व संपदा से भरपूर तथा देश के पहले शत-प्रतिशत शिक्षित राज्य केरल की तुलना सोमालिया जैसे अराजकतापूर्ण व गृहयुद्ध से जूझने वाले देश से कर डाली है। उन्होंने इतनी बड़ी बात सिर्फ केरल राज्य के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर की है। सवाल यह है कि क्या देश के प्रधानमंत्री को अपने ही देश के एक समृद्ध राज्य के लिए इतनी गैर जिम्मेदाराना व घटिया िकस्म की बात करनी चाहिए? यदि वे प्रधानमंत्री के रूप में किसी विदेशी दौरे पर जाएं और वहां का मीडिया उनसे उन्हीं के मुखारविंद से निकले हुए इन्हीं शब्दों पर इसकी व्या या जानना चाहे तो क्या उन्हें यह बताते हुए खुशी महसूस होगी कि जिस देश के वे प्रधानमंत्री हैं उसी देश में सोमालिया जैसा कोई राज्य भी मौजूद है? कानून व्यवस्था की स्थिति यदि केरल में खराब है, वहां की सरकार घोटालों के आरोप झेल रही है या संघ अथवा भाजपा समर्थकों पर वामपंथी पार्टियों के कार्यकर्ताओं द्वारा हमले किए जाते हैं तो निश्चित रूप से इन सभी बातों की निंदा व आलोचना की जानी चाहिए। इन्हें चुनावी मुद्दा बनाना भी गलत नहीं है। कानून को इन सभी बातों पर संज्ञान लेना चाहिए। परंतु ऐसे हालात आखिर देश के किस राज्य में नहीं हैं। क्या गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ अथवा राजस्थान जैसे दूसरे भाजपा शासित या भाजपा समर्थित सरकारों वाले राज्यों में हत्याएं नहीं होतीं? क्या इन प्रदेशों की सरकारों पर घोटालों के आरोप नहीं हैं? परंतु चूंकि यह भाजपा शासित राज्य हैं इसलिए इन्हें सुशासन का प्रतीक मान लिया जाए और केरल में चूंकि इनकी सरकार नहीं है और वहां दूसरे दल की सरकार सत्ता में है इसलिए वहां के शासन की तुलना सोमालिया जैसे अशांत व अराजकता से रूबरू मुल्क से की जाए? और वह भी किसी साधारण व्यक्ति, नेता अथवा मंत्री द्वारा नहीं बल्कि प्रधानमंत्री के द्वारा? यहां एक बार फिर यह याद दिलाना पड़ रहा है कि 2002 में जिस समय यही नरेंद्र मोदी गुजरात राज्य के मुख्यमंत्री थे और गोधरा हादसे के बाद लगभग दो महीने तक पूरा गुजरात हिंसा की चपेट में था और उस समय की राज्य की मोदी सरकार तमाशबीन बनी सबकुछ होते हुए देख रही थी उन दिनों की तुलना भी मोदी विरोधियों द्वारा सोमालिया से नहीं की गई थी। निश्चित रूप से 1984 के सिख विरोधी दंगों में भी दिल्ली के कुछ इलाकों के हालात अराजकतापूर्ण हो गए थे। उन दिनों को भी किसी ने सोमालिया की संज्ञा से नहीं नवाजा। परंतु मात्र अपने चुनावी भाषण को प्रभावी बनाने के लिए पूरे राज्य की सोमालिया से तुलना कर डालना प्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठे व्यक्ति को तो कतई शोभा नहीं देता। केरल में हालांकि भारतीय जनता पार्टी का न तो कभी कोई नामलेवा रहा न ही इस विचारधारा का वहां कोई वजूद है। इसके बावजूद दशकों से किए जा रहे संघ कार्यकर्ताओं के प्रयास के परिणामस्वरूप भाजपा को राज्य की मात्र दो सीटों पर विजय हासिल करने की उम्मीद थी। परंतु प्रधानमंत्री द्वारा राज्य की तुलना सोमालिया से किए जाने के बाद राज्य की जनता में काफी रोष उत्पन्न हो गया है। केरलवासी प्रधानमंत्री के इन शब्दों के बाद अब अपने राज्य का अपमान महसूस करने लगे हैं। चुनावी विश्लेषकों का मानना है कि अब भाजपा की संभावित जीत वाली दक्षिण केरल की नेमाम तथा उत्तर केरल की मानजेसर सीट पर भी खतरा मंडराने लगा है। जिस माक्र्सवादी क युनिस्ट पार्टी की जनता में पकड़ कमजोर होती जा रही थी उसे मोदी के इस भाषण के बाद नई उर्जा प्राप्त हो गई है। केरल की दलित छात्रा जीशा के साथ हुए वीभत्स बलात्कार व उसकी नृशंस हत्या संबंधी जो सवाल मुख्यमंत्री ओमान चांडी से चुनाव के दौरान उनके विपक्षियों द्वारा पूछे जा रहे थे नरेंद्र मोदी की सोमालिया टिप्पणी ने उन सवालों को पीछे कर दिया है। और अब मुख्यमंत्री चांडी ने सीधेतौर पर राज्य को अपमानित किए जाने का ठीकरा नरेंद्र मोदी के सिर पर फोडने का काम शुरु कर दिया है। चांडी ने यह भी दावा किया है कि बावजूद इसके कि केरल गरीबी व आंतरिक संकट से जूझ रहा है फिर भी यह राज्य पिछले पांच साल से आर्थिक व मानव संसाधन विकास में राष्ट्रीय औसत से आगे है। जिस प्रकार 2002 के गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी पर मीडिया अथवा विपक्ष हमलावर होता था तो मादी अपने बचाव में अक्सर यही कहा करते थे कि उन्हें या उनकी सरकार को निशाना बनाना 9 करोड़ गुजरातियों का अपमान है। वे अपने प्रत्येक विरोध व आलोचना को सीधेतौर पर गुजरात राज्य की अस्मिता व उसकी मान-मर्यादा से जोड़ दिया करते थे। वही शस्त्र नीतिश कुमार द्वारा मोदी की डीएनए टिप्पणी पर नरेंद्र मोदी पर चलाया गया और अब वही शस्त्र ओमान चांडी द्वारा सोमालिया की टिप्पणी पर मोदी के विरुद्ध उठाया गया है। लिहाजा जब तक नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं तब तक उन्हें अपने शब्दों को बड़े ही नपे-तुले व गरिमामय तरीके से पेश करना चाहिए क्योंकि वे एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरे भारत के प्रधानमंत्री के रूप में अपनी बात कहते हैं। लिहाजा उनके हर शब्द व उनकी हर बात प्रधानमंत्री पद की गरिमा के अनुरूप ही होनी चाहिए।
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Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.