पांच कविताएँ
1. ओ पश्मीना!
ऊन की लच्छी था रिश्ता
कुछ हिस्से के स्वेटर बुने तुमने
और मुक्त हुई मुझे “बुनकर” बना कर।
लिखना पूस की ठंडी रात है मेरे लिए
चाहे ‘नमस्ते’ लिक्खूं या ‘विदा’,
साँस लेता है
स्वेटर पर तुम्हारी उंगलियों का स्पर्श।
और तेज़,बहुत तेज़ धड़कने लगता है
दो अनामिका का एक दिल।
मेरा “साँस लेना”
नीला स्कार्फ है तुम्हारे लिए ओ पश्मीना!
जेठ की धूप में
सिसकती,हिचकती
खाँसती, कँपकँपाती हुई पश्मीना।
मेरी आँखें दो मेरिनो भेड़ है,
और “इंतज़ार करना”
ऊन उतारने की प्रकिया…
तुम आओ,
या ना आओ,
लेकिन साँस लेती रहेगी ऊन की पृथ्वी।
तुम दूर से ही सही
दुधिया ऊन के ताजमहल की कल्पना करना,
और मुस्कुरा कर
शिक़ायत करना आईने से मेरी
ओ नटखटी पश्मीना!
ओ पश्मीना,
तेरी खामोशी भी तो “हिचकी का वृक्ष” है,
है ना!
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2. तुम जहाँ हो,
“कहाँ हो” में पड़ता है?
मैं तो “कहाँ हो” में कब से रह रहा था,
लेकिन “कहाँ हो” में तुम कहाँ थी कहीं?
मेरी आत्मा की दाँयी कलाई पर
“कहाँ हो” की
हथेली के नाखून के निशान,
क्या मलीन होंगे कभी?
ये निशान गहराते ही जाते हैं,
जब जब हरियाती है
“कहाँ हो” के कदमों से
पृथ्वी लांघ चुकी मेरी आत्मा की
शून्य में छलांग की यादें।
लेकिन आत्मा मरती कहाँ कभी,
हद है कि
कमबख़्त के हाथ-पैर भी नही टूटते।
वो तो शून्य की पृथ्वी पर
चींटी की तरह रेंगती हुई
चीनी का स्तूप तलाशने के
सफ़र के दौरान-
ना जाने कितने मर्तबा
कौआ स्नान करेगी,
स्नाऊ-पाउडर,केश खोपा करके
ना जाने और कितने कपड़े बदलेगी …
और “कहाँ हो” की अस्थियों से
बाँसुरी बजाने वाला ये वक़्त,
अजी चरवाहा-फरवाहा कुछ नही,
महज़ ढ़ोंगी भिखारी नज़र आता है मुझे।
मैंने वक्त की कटोरी में
उम्र के कुछ सिक्के खसाए,
और हर कदम तमाशे देखे…
एक राज़ की बात कहूँ?
मेरी ज़िन्दगी के हर तमाशे का
पटकथा लेखक स्वयं हूँ,
और किरदार लिखते हुए मैंने
दर्शक के किरदार का आग्रह सौंपा है मुझे।
जैसे कि एक कहानी में
मेरी देह को
झूठ-मूठ का विधवा होना था,
मेरी देह की दो बेटी के
किरदार के लिए
मैंने कविता और कहानी को चुना…
कहानी ज़िद्दी,नकचढ़ी है
अबोध है अभी,
ठीक “कहाँ हो” की तरह।
लेकिन बेहद सुरीली
जैसे “जहाँ हो” से
“तुम्हारी ख़ैरियत” का सुमधुर संगीत।
ये जो कहानी है ना!
बिल्कुल तेरे जिस्म पे गयी है,
ठीक वैसा ही रंग-ढंग,
नैन-नक़्श,चाल-चलन।
और कविता?
सुनो,
कविता अब जवान हो चुकी है!
मैं किसी दिन
दर्शक दीर्घा से उठ कर
कन्यादान करूँगा…
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3. किसी ने बदल लिया
बचपना वाला आसमान शायद!
उन दिनों आसमान में
तारे कुछ ज़ियादा अधिक होते थे।
ये कौन छोड़ गया
बची-खुची उम्र के हिस्से
फटी पुरानी कमीज़ सा आसमान?
न!
ये मेरा तो हरगिज़ नही।
इसकी ज़ेब में ना नींद
ना माँ की लोरी
ना ही पिता के स्नेह का एटलस।
ना ही छुटकी की राखी की
डोरी में लिपटे बदमाशियों के बहाने,
ना ही नानी की चाय की गिलसी
ना बताशे की थैली
और ना ही कबूतरों के पंख हैं
एकांत के पालने पर।
ये हर तरफ फूल हैं या
तूतलाहट की तितलियों के ख़ून के छिंटे?
गर छपाछप छिपली भर पानी में देखूँ,
तो अब चाँद
पिज़रे में बंद कोई लंगुर दिखता है।
हद, भद्दा धूसर ये आसमान!
कितने भद्दे लगते हैं नीली कमीज़ पर
गछपक्कू आम के दाग,
क्या नीली सियाही से
गढ़ी तस्वीर को भी पीलिया से मरना था?
आँखों से बहती हुई गिलहरियां
उम्र भर सीखती रही,
बादूरों और कौए से कुतरने का कौशल।
गर सिक्के के उस तरफ
कोई आसमान कुतरे या उंगली,
इस तरफ हिचकी आती है।
ये टूटे झड़े हुए बटन सारे,
अंकुरित चने के छिलके के
रेगिस्तान के ताले की नाकाम चाभियां हैं।
धूप में पटपटाती मछलियों के लिए
जल जैसी हो
जिस हृदय के दौ पैर की आहट,
रेगिस्तान के पिटारे से
जो खोज़ लाता हो जलपरी,
वो बूढ़े घड़ियालों और बगुले की
बस्ती से नही गुज़रा करते।
मैं जबतलक अतीत के स्वप्न से
बदल ना लाऊं कमीज़,
मुझे खानाबदोशी की बाँहों में
नग्न देह विश्राम करने दो।
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4. आत्मा की छाती पर
हिनहिनाता है घोड़करेत,
डेढ़ कोस चौहद्दी में
छिंट आता हूँ दूध-लाबा।
अनसुलझे प्रश्नों के
ग्लूकोज,टाॅनिक गटक के
अघाता,सुस्ताता रहा मन।
भोथरा जाती है
अघाये मन की जीभ,
जब मन ही मन
गमकता है मालदह,
टुकूर-टुकूर जूआता है केतारी।
तीतकूट भयो बूनिया-जिलेबी
अनून लगे तिमन-तरकारी।
भूख लगे भी तो कैसे?
जब पेट में उपजे
डीसमिल में तेरह पसेरी धान।
लतड़ रही
अपेक्षा के कदीमा की लत्ति,
चूने लगा है उम्र का मठोत।
ठग लिया
ठिठुआ दिखा के पनबट्टी,
लसका हुआ है
दाँत में सुपारी-कत्था।
रोमावलियों में
केश-खोपा कर रही है रूदाली,
भोर-साँझ छुछुआता है
मुँहदिखाई में मुँहझौंसा।
बाम कान में पालथी मार
जोशियाता है ढ़ोलकिया,
वाचाल कान में
उड़ चुकी गौरेया के खोता…
बाँयी आँख में
जनम गया नारियल गाछि,
गूंगी आँख माँजती है
बंजारन की जूठन छिपलियां।
तीन मरद अन्हरिया में
उग आया कनिया-पुतरा,
अटकन-मटकन, खपटा-खपटी!
ऐड़ी भर इजोरिया में
डूब चुका चन्द्रमा…
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5. यौवन कागज़ खाने वाला कीड़ा है
अच्छा ही हुआ
कि मेरे बचपन के कागज़ पर
बुढ़ापे की मधुमक्खियां भिनभिनाती रही।मेरी देह पर इस्तरी करती है कमीज,
प्रायः देह पहन
कमीज की जुल्फ़े सँवारता हूँ।कमीज़ बचपना है
ज़ेब से कवितायें चुराता हूँ!
और बुढ़ापा शहद की नीली लपटें,
जवानी जली हुई रोटी…मैं तीन लड़कियों से एक ही समय में
एक साथ प्रेम करता हूँ-
वो,
उसे लिखते रहने की वज़ह,
और उसे पढ़ते रहने की चाह…एक दिन प्रेम को मैंने किसान कहा,
अब मेरी दो आँखों के कंधे पे पालो बाँध,
सुस्ता रहा है कोई…सूर्य देवता!
सुस्ताओ मत,
बरसाते रहो
आँखों की पीठ पे कोड़े!
इंतज़ार
चाँद को जाती हुई पगडंडी है।आँसू का हर बूँद खरगोश,
लहलहाते हरे-भरे घास
झाड़ियां,
प्रेम की मिठास…
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आयुष झा आस्तीक पिता- श्री मिथिलेश झा ग्राम- रामपुर आदि पोष्ट- मानुलह पट्टी जिला- अररिया ( बिहार) पिन- 854334
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वर्तमान पता- एकता नगर, मलाड ( मुंबई )