– तनवीर जाफ़री –
भारत के इतिहास में 9 नवंबर की तारीख़ अयोध्या के विवादित मंदिर-मस्जिद मुद्दे के न्यायिक समाधान किये जाने की सर्वोच्च न्यायलय द्वारा की गई निर्णय रुपी कोशिश के लिए हमेशा याद रखी जाएगी। देश में चले इस सबसे दीर्घकालीन मुक़द्द्मे के फ़ैसले को कई अलग अलग पहलुओं से देखा जा रहा। हिन्दू व मुसलमान,दोनों ही पक्षों के लिए यह आस्था से जुड़ा विषय रहा तो दोनों ही पक्ष इस विवादित स्थान पर मालिकाना हक़ के लिए भी अदालती लड़ाई लड़ते रहे। “सौगंध राम की कहते हैं,हम मंदिर वहीँ बनाएँगे” जैसा नारा देकर भारतीय जनता पार्टी ने दिनों दिन अपना विस्तार किया और इतना किया की आज बहुमत की सरकार संचालित कर रही है। इसी मुद्दे पर देश में अनेक साम्प्रदायिक दंगे हुए,रथ यात्राएं निकाली गईं,और बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ। 2002 में हुए गोधरा साबरमती ट्रेन अग्निकांड में कारसेवकों के ज़िंदा जलने से लेकर गोधरा में लंबे समय तक चली मुस्लिम विरोधी हिंसा तथा गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का हिन्दू ह्रदय सम्राट के रूप में हुआ ज़बरदस्त उभार,आदि सब कुछ अयोध्या के इसी मंदिर-मस्जिद विवाद की ही देन है।
बहरहाल,सर्वोच्च न्यायलय की 5 सदस्यीय सर्वोच्च बेंच ने जो निर्णय सुनाया उससे मामले का निपटारा हुआ तो समझा जा रहा है परन्तु इसी फ़ैसले के विस्तार में जो टिप्पणियां माननीय न्यायलय द्वारा की गयी हैं उसे लेकर बड़ा विवाद भी खड़ा हो गया है। अनेक विधि विशेषज्ञों का मानना है की निर्णय के साथ साथ जो टिप्पणियां न्यायपीठ द्वारा की गयी हैं वह उस मूल निर्णय से मेल नहीं खातीं जिसके तहत पूरी विवादित भूमि का मालिकाना हक़ हिन्दू पक्ष को मंदिर निर्माण के लिए दिया गया है। इस निर्णय पर सवाल उठाने वालों में सबसे प्रमुख नाम सर्वोच्च न्यायलय के ही पूर्व न्यायाधीश जस्टिस अशोक कुमार गांगुली का है। उनका कहना है कि जिस आधार पर विवादित ज़मीन हिन्दू पक्ष को देने का फ़ैसला किया गया है वो उनकी समझ से परे है और जिस तरह ये फ़ैसला दिया गया वो उन्हें परेशान करता है। जस्टिस गांगुली ने अदालत द्वारा स्वीकार्य इन बातों कि ”बाबरी मस्जिद लगभग 450-500 सालों से वहां थी। यह मस्जिद 6 दिसंबर 1992 में तोड़ दी गई। मस्जिद का तोड़ा जाना सबने देखा है. इसे लेकर आपराधिक मुक़दमा भी चल रहा है। सुप्रीम की इस बेंच ने भी मस्जिद तोड़े जाने को अवैध कहा है और इसकी आलोचना की है। परन्तु इसके साथ ही अदालत ने ये फ़ैसला दिया कि मस्जिद की ज़मीन रामलला यानी हिन्दू पक्ष की है। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि मस्जिद जहां थी वहां मंदिर था और उसे तोड़कर बनाया गया था। कहा गया कि मस्जिद के नीचे कोई संरचना थी लेकिन इसके कोई सबूत नहीं हैं कि वो मंदिर ही था.”जैसी बातों का ज़िक्र किया। साथ साथ ”विवादित ज़मीन हिन्दू पक्ष को देने का आधार ‘पुरातात्विक साक्ष्यों’ को बनाने पर सवाल उठाया क्योंकि पीठ द्वारा ही यह भी कहा गया है कि पुरातात्विक सबूतों से ज़मीन के मालिकाना हक़ का फ़ैसला नहीं हो सकता. ऐसे में सवाल उठता है कि फिर किस आधार पर ज़मीन दी गई?”
जस्टिस गांगुली ने कहा कि ”यहां तो मस्जिद पिछले 500 सालों से थी और जब से भारत का संविधान अस्तित्व में आया तब से वहां मस्जिद थी। संविधान के आने के बाद से सभी भारतीयों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है।अल्पसंख्यकों को भी अपने धार्मिक आज़ादी मिली हुई है। अल्पसंख्यकों का यह अधिकार है कि वो अपने धर्म का पालन करें। उन्हें अधिकार है कि वो उस संरचना का बचाव करें, ऐसे में बाबरी मस्जिद विध्वंस का क्या हुआ? उन्होंने यह सवाल भी किया कि ”’क्या आप आस्था को आधार बनाकर फ़ैसला देंगे? एक आम आदमी इसे कैसे समझेगा? ख़ास करके उनके लिए जो क़ानून का दांव पेच नहीं समझते हैं? लोगों ने यहां वर्षों से एक मस्जिद देखी. अचानक से वो मस्जिद तोड़ दी गई. यह सबको हैरान करने वाला था। यह हिन्दुओं के लिए भी झटका था। जस्टिस गांगुली कहते हैं कि जो असली हिन्दू हैं वो मस्जिद विध्वंस में भरोसा नहीं कर सकते। यह हिंदुत्व के मूल्यों के ख़िलाफ़ है। कोई हिन्दू मस्जिद तोड़ना नहीं चाहेगा। जो मस्जिद तोड़ेगा वो हिन्दू नहीं है. हिन्दूइज़म में सहिष्णुता है। हिन्दुओं के प्रेरणास्रोत चैतन्य, रामकृष्ण और विवेकानंद रहे हैं.” जस्टिस गांगुली ने सवाल उठाया कि ”मस्जिद तोड़ दी गई और अब अदालत ने वहां मंदिर बनाने की इजाज़त दे दी है। अर्थात जिन्होंने मस्जिद तोड़ी थी उनकी तो यही मांग थी और उनकी मांग पूरी हो गई है। जबकि अभी दूसरी तरफ़, बाबरी विध्वंस के मामले विचाराधीन हैं. जिन्होंने क़ानून-व्यवस्था तोड़ी और संविधान के विरुद्ध काम किया उन्हें कोई सज़ा नहीं मिली और विवादित ज़मीन पर मंदिर बनाने का फ़ैसला आ गया? वे कहते हैं कि ”मैं सुप्रीम कोर्ट का हिस्सा रहा हूं और उसका सम्मान करता हूं लेकिन यहां मामला संविधान का है।संविधान के मौलिक कर्तव्य में यह लिखा है कि वैज्ञानिक तर्कशीलता और मानवता को बढ़ावा दिया जाए।इसके साथ ही सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा की जाए, मस्जिद सार्वजनिक संपत्ति ही थी, यह संविधान के मौलिक कर्तव्य का हिस्सा है। मस्जिद तोड़ना एक हिंसक कृत्य था.”जस्टिस गांगुली ने कहा कि यह असामान्य है लेकिन वो इस पर नहीं जाना चाहते. इस फ़ैसले का गणतांत्रिक भारत और न्यायिक व्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा? उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि ”इस फ़ैसले से जवाब कम और सवाल ज़्यादा खड़े हुए हैं. मैं इस फ़ैसले हैरान और परेशान हूं. इसमें मेरा कोई निजी मामला नहीं है.” इस फ़ैसले का असर बाबरी विध्वंस केस पर क्या पड़ेगा”?उन्होंने कहा कि वो उम्मीद करते हैं कि इसकी जांच स्वतंत्र रूप से हो और मामला मुक़ाम तक पहुंचे.”
इसी प्रकार लिब्रहान आयोग के वकील रहे वरिष्ठ वकील अनुपम गुप्ता ने भी अयोध्या में पूरी ज़मीन हिंदू पक्ष को देने के अदालती निर्णय पर सवाल उठाए हैं। अनुपम गुप्ता ने ही 6 दिसंबर 92 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेताओं लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह तथा पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव से दिल्ली के विज्ञान भवन में जिरह की थी। उन्होंने कहा कि वे ‘विवादित जगह के भीतर और बाहर की ज़मीन को पूरी तरह हिंदुओं को दिए जाने के फ़ैसले से सहमत नहीं हैं और वे अदालत द्वारा ‘मालिकाना हक़ के निष्कर्ष पर से भी असहमत हैं। अनुपम गुप्ता के अनुसार ‘यहां तक कि बाहरी अहाते पर हिंदुओं के मालिकाना हक़ और लंबे समय से हिंदुओं के वहां बिना किसी रुकावट के पूजा करने की दलीलें स्वीकार कर ली गई हैं, लेकिन अंदर के अहाते पर आया अंतिम फ़ैसला अन्य निष्कर्षों के अनुकूल नहीं है। अदालत ने कई बार यह दोहराया और माना कि भीतरी अहाते में स्थित गुंबदों के नीचे के क्षेत्र का मालिकाना हक़ और पूजा-अर्चना विवादित है। इसे मानते हुए, अंतिम राहत यह होनी चाहिए थी कि बाहरी अहाता हिंदुओं को दिया जाता। लेकिन सवाल है कि भीतरी अहाता भी हिंदुओं को कैसे दिया जा सकता है’? वरिष्ठ वकील अनुपम गुप्ता ने कहा कि यह मुझे विचित्र लगता है कि फ़ैसले में कहा गया है कि मुसलमानों की तरफ़ से इसके कोई सबूत नहीं दिए गए कि 1528 से 1857 के बीच यहां नमाज़ पढ़ी गई. अब भले ही मुक़दमे में साक्ष्यों के अभाव पर फ़ैसला किया गया है, लेकिन यह बात निर्विवाद है कि 1528 में एक मस्जिद बनाई गई जिसे 1992 में ध्वस्त कर दिया गया।
विधि विशेषज्ञों की इस प्रकार की अनेक आपत्तियों के बीच गुजरात में भरूच से बीजेपी के एक सांसद मनसुख वसावा ने एक ऐसा विवादित बयान दे दिया जो अयोध्या संबंधी अदालती फ़ैसले की साख पर सवाल खड़ा करने वाला है। उन्होंने दावा किया कि सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर के “पक्ष में” फ़ैसला इसलिए सुनाया क्योंकि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। ऐसे बयान भी अदालती फ़ैसलों पर सन्देह पैदा करते हैं। बेशक देश के आगे बढ़ने के लिए इस तरह के विवादों का हमेशा के लिए दफ़्न हो जाना ही राष्ट्र हित में है। परन्तु भारतीय अदालतों की विशेषकर सर्वोच्च न्यायालय की साख भी देश की साख से जुड़ी है। सर्वोच्च न्यायलय को किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पहले अपनी प्रतिष्ठा व साख का भी ध्यान रखना चाहिए। न केवल पूरा भारतीय समाज न्यायालयों की साख पर भरोसा करता है बल्कि पूरे विश्व की निगाहें भी ऐसे महत्वपूर्ण फ़ैसलों पर टिकी होती हैं। आशा की जानी चाहिए कि तमाम आलोचनाओं के बाद भी देश इस विवाद से उबर सकेगा और यही विवादित स्थल नफ़रत के बजाए एकता की मिसाल क़ाएम करेगा।
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About the Author
Tanveer Jafri
Columnist and Author
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He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.
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